विश्वबन्धुत्वम्
(क) उत्सवे, व्यसने, दुर्भिक्षे, राष्ट्रविप्लवे, दैनन्दिनव्यवहारे च य: सहायतां करोति सः बन्धु: भवति। यदि विश्वे सर्वत्र एतादृश: भाव: भवेत् तदा विश्वबन्धुत्व सम्भवति।
परन्तु अधुना निखिले संसारे कलहस्य अशान्ते: च वातावरणम् अस्ति। मानवा: परस्परं न विश्वसन्ति। ते परस्य कष्टं स्वकीयं कष्टं न गणयन्ति। अपि च समर्था: देशा: असमर्थान् देशान् प्रति उपेक्षाभावं प्रदर्शयन्ति, तेषाम् उपरि स्वकीयं प्रभुत्व॑ स्थापयन्ति। संसारे सर्वत्र विद्वेषस्य, शत्रुताया:, हिंसाया: च भावना दृश्यते।
सरलार्थ - उत्सव में , संकट में , अकाल पड़ने पर , देश पर आपदा आने पर और दैनिक व्यवहार में जो सहायता करता है , वह मित्र होता है । यदि संसार में सब जगह ऐसा भाव हो जोए तब भाईचारा सम्भव है ।
परन्तु अब संपूर्ण संसार में कलह और अशान्ति का वातावरण है । मनुष्य आपस में (एक दूसरे पर) विश्वास नहीं करते हैं । वे दूसरे के कष्ट को अपना कष्ट नहीं गिनते हैं । समर्थ देश असमर्थ देशों के प्रति अनादर की भावना प्रदर्शित करते हैं और उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं । संसार में सब जगह शत्रुता की , वैर की और हिसं की भावना दिखाई पड़ती है ।
(ख) देशानां विकास: अपि अवरुद्ध: भवति। इयम् महती आवश्यकता वर्तते यत् एक: देश: अपरेण देशेन सह निर्मलेन हृदयेन बन्धुतायाः व्यवहारं कुर्यात्। विश्वस्य जनेषु इयं भावना आवश्यकी। ततः विकसिताविकसितयो: देशयो: मध्ये स्वस्था स्पर्धा भविष्यति। सर्वे देशा: ज्ञानविज्ञानयो: क्षेत्रे मेत्रीभावनया सहयोगेन च समृद्धि प्राप्तुं समर्था: भविष्यन्ति।
सूर्यस्य चन्द्रस्य च प्रकाश: सर्वत्र समानरूपेण प्रसरति। प्रकृति: अपि सर्वेषु समत्वेन व्यवहरति। तस्मात् अस्माभि: सर्वे: परस्परं वैरभावम् अपहाय विश्वबन्धुत्वं स्थापनीयम्।
सरलार्थ - देशों का विकास भी बाधित होता है । यह बड़ी आवश्यकता है कि एक देश दूसरे देश के साथ शुद्ध हृदय से बन्धुता का व्यवहार करें । संसार के मनुष्यो में यह भावना आवश्यक हैं । इससे विकसित - अविकसित देशों के बीच में स्वस्थ होड़ होगी । सभी देश ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र में मैत्री भावना और सहयोग के द्वारा समृद्धि को प्राप्त करने में समर्थ हो जाएँगे । सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश सब जगह समान रुप सें फैसलता है । प्रकृति भी सभी के साथ समान व्यवहार करती है । इसलिए हम सभी को आपस में वैरभाव को छोड़कर विश्वबन्धुता की स्थापना करनी चाहिए ।
(ग) अत: विश्वस्य कल्याणाय एतादशी भावना भवेत्-
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुट॒म्बकम् ॥
अन्वयः - अयं निजः पर वा इति लबुचेतसां गणना (अस्ति) । उदारचरितानां तु वसुधा एव कुटुम्बकम् (भवनि) ।
सरलार्थ -इसलिए विश्व के कल्याण के लिए ऐसी भावना होनी चाहिए -
यह अपना है अथवा पराया है , ऐसी सोच छोटे मन वालों की होती है उदार मन वालों के लिए (समपूर्ण) पृथ्वी ही परिवार होती है ।
S.no | Chapters |
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1 | सुभाषितानि |
2 | दुर्बुद्धि: विनश्यति |
3 | स्वावलम्बबम् |
4 | हास्यबालकविसम्मेलनम् |
5 | पण्डिता रमाबाइ |
6 | सदाचार |
7 | सङ्कल्प: सिंद्धिदायक: |
8 | त्रिवर्णः |
9 | |
10 | विश्वबन्धुत्वम् |
11 | समवायो हि दुर्जयः |
12 | विद्याधनम् |
13 | अमृतं संस्कृतम |
14 | अनारिकायाः जिज्ञासा |
15 | लालनगीतम |
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