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इसी उद्यान में एक संन्यासी (परिव्राजक) भी अपने शिष्य शाण्डिल्य के साथ आए हुए हैं। शाण्डिल्य वसन्तसेना को मृत देखकर बहुत दुःखी होता है। तब संन्यासी योग के बल से अपना जीव गणिका के शरीर में प्रवेश करा देते हैं। गणिका जीवित हो जाती है। उध्र यमराज अपने दूत को गलत जीव लाने पर डाँट-डपट कर वापस भेज देते हैं। यम का दूत उद्यान में आकर देखता है कि जिस वसन्तसेना के प्राण वह ले गया था, वह संन्यासी की तरह सबको उपदेश दे रही है। यम का दूत संन्यासी के खेल को आगे बढ़ाने के लिए गणिका का जीव संन्यासी की काया में डाल देता है। इससे संन्यासी गणिका की तरह बोलते हैं और गणिका संन्यासी की तरह। जीव के इस उलट पेफर से नाटक में हास्यपूर्ण और रोचक स्थिति बन जाती है।
(ततः प्रविशन्ति एकतः परिव्राजकस्य जीवेन आविष्टा वसन्तसेना, चेटी, रामिलकश्च: परिव्राजकस्य निर्जीवदेहेन सह शिष्यः शाण्डिल्यः अपरतः अन्यया चेट्या सह वैद्यः)
वैद्यः - कुत्र सा?
चेटी - एषा खलु अज्जुका न तावत् सत्त्वस्थिता।
वैद्यः - अरे इयं सर्पेण दष्टा।
चेटी - कथमार्यो जानाति?
वैद्यः - महान्तं विकारं करोतीति। विषतन्त्रम् आरभे। कुण्डल-कुटिलगामिनि! मण्डलं प्रविश प्रविश। वासुकिपुत्र! तिष्ठ तिष्ठ। श्रू श्रू। अहं ते सिरावेध्ं करिष्यामि। कुत्र कुठारिका।
गणिका - मूर्ख वैद्य! अलं परिश्रमेण।
वैद्यः - पित्तमप्यस्ति। अहं ते पित्तं वातं कफं च नाशयामि।
रामिलकः - भोः! क्रियतां यत्नः। न खल्वकृतज्ञा वयम्।
वैद्यः - गुलिकाः आनयामि।
सरलार्थ: उसके बाद एक ओर से संन्यासी के जीवात्मा से युक्त वसन्तसेना, चेटी और रामिलक: तथा संन्यासी के मृत शरीर के साथ शिष्य शाण्डिल्य प्रवेश करते हैं, दूसरी ओर से दूसरी (अन्य) चेटी के साथ वैद्य ;प्रवेश करते हैं,-
वैद्य - वह कहाँ है?
चेटी - निश्चय ही यह सम्मानिता देवी जीवित नहीं है।
वैद्य - अरे! यह तो साँप से डसी गई है।
चेटी - आपने कैसे जाना?
वैद्य - बहुत हानि कर रहा है। झाड़-पूँफक को आरम्भ कर रहा हूँ। अरे कुण्डल की तरह टेढ़ी चाल वाले सर्प! (तू) ओझाओं के द्वारा साँप पकड़ने के लिए पृथ्वी पर बनाई जाने वाली वृत्ताकार आकृति में प्रवेश कर, प्रवेश कर। शूह-शूह। मैं तेरे नाड़ी (नस) को काट दूँगा। कुल्हाड़ी कहाँ है?
गणिका - हे मूर्ख वैद्य! व्यर्थ परिश्रम मत करो।
वैद्य - पित्त भी है। मैं तेरे पित्त, वायु (वात) और कफ को नष्ट करता हूँ।
रामिलक - अरे! प्रयत्न जारी रखें। निश्चय ही हम कृतघ्न (उपकार न मानने वाले) नहीं हैं।
वैद्य - गोलियाँ लाता हूँ।
(निष्क्रान्तः)
(ततः प्रविशति यमपुरुषः)
यमपुरुषः - भोः! भत्र्सितोऽहं यमेन।
न सा वसन्तसेनेयं क्षिप्रं तत्रैव नीयताम्।
अन्या वसन्तसेना या क्षीणायुस्तामिहाऽनय।।
यावदस्याश्शरीरमग्निसंयोगं न स्वीकरोति तावत्सप्राणामेनां करोमि।
(विलोक्य) अये! उत्थिता खल्वियम्। भो! किन्नु खल्विदम्।
अस्या जीवो मम करे उत्थितैषा वरांङ्गना।
आश्चर्यं परमं लोके भुवि पूर्वं न दृश्यते।।
(सर्वतोऽवलोक्य)
अन्वयः
(i) इयं सा वसन्तसेना न (अस्ति) तत्रौव क्षिप्रं नीयताम्। या अन्या क्षीणायुः वसन्तसेना ताम् इह आनय।।
(ii) मम करे अस्याः जीवः एषा वरांङ्गना उत्थिता। (इदं) परमं आश्चर्यं लोके भुवि पूर्वं न दृश्यते।।
सरलार्थ: (निकल गया)
(उसके बाद यमराज का सेवक (सैनिक) प्रवेश करता है)
यमपुरुष - अरे! मैं यमराज के द्वारा डाँटा गया हूँ।
यह वह वसन्तसेना नहीं है (जो क्षीण आयु वाली थी) (अतः) इसे शीघ्र ही वहीं ले जाओ और जो नष्ट आयु वाली दूसरी वसन्तसेना नामक महिला है; उसे यहाँ ले आओ। (तो) जब तक इसका (यह) शरीर अग्नि में संयोग नहीं पाता तब तक इसे सप्राण (जीवित) करता हूँ। (देखकर) अरे! निश्चय ही यह तो उठ गई। अरे! निश्चय ही यह क्या हुआ। इसका जीव मेरे हाथ में होते हुए भी यह सुन्दर शरीर वाली सुन्दरी (स्त्री) उठ गई। इस महान आश्चर्य को पहले संसार में ध्रती पर कहीं भी नहीं देखा गया।
(सब ओर देखकर)
अये! अयमत्रभवान् योगी परिव्राजकः क्रीडति। किमिदानीं करिष्ये। भवतु, दृष्टम्। अस्या गणिकाया आत्मानं परिव्राजकशरीरे न्यस्य अवसिते कर्मणि यथास्थानं विनियोजयामि।
(तथा कृत्वा निष्क्रान्तः)
परिव्राजकः - (उत्थाय गणिकायाः स्वरेण) परभृतिके! परभृतिके!
शाण्डिल्यः - अरे! प्रत्यागतप्राणः खलु भगवान्।
परिव्राजकः - कुत्र कुत्र रामिलकः।
रामिलकः - भगवन्नयमस्मि।
शाण्डिल्यः - भगवन् किमिदम्? रुद्राक्षग्रहणोचितः वामहस्तः शघ्खवलयपूरित इव मे प्रतिभाति। नैव नैव।
परिव्राजकः - रामिलक! आलिङ्ग माम्।
सरलार्थ: अरे! ये योगी संन्यासी खेल रहे हैं। (यह इस संन्यासी का खेल है) अब क्या करूँ (मैं)। ठीक है, समझ लिया। इस गणिका ;वेश्याद्ध की आत्मा को संन्यासी के शरीर में रखकर (डालकर) काम की समाप्ति होने तक उचित स्थान पर लगाता हूँ।
(वैसा करके निकल गया)
संन्यासी - (उठकर वेश्या की आवाश में) हे सेविका! हे सेविका!
शाण्डिल्य - अरे! निश्चय ही भगवन् जीवित हो गए हैं।
संन्यासी - रामिलक कहाँ है, कहाँ है?
रामिलक - हे भगवन्! (मैं) यह हूँ।
शाण्डिल्य - भगवन् यह क्या? (आपका) बायाँ हाथ जो रुद्राक्ष धरण करने योग्य है शंख से बने हुए कड़े से युक्त जैसा मुझे प्रतीत हो रहा है। नहीं-नहीं।
संन्यासी - हे रामिलक! मुझको गले लगा लो।
(ततः प्रविशति वैद्यः)
वैद्यः - गुलिकाः मया आनीताः। उदकम् उदकम्।
चेटी - इदम् उदकम्।
वैद्यः - गुलिकाः अवघट्टðयामि।
गणिका - (संन्यासिनः स्वरेण) मूर्ख वैद्य! जानासि कतमेन सर्पेण इयं स्त्री दष्टा?
वैद्यः - अरे, इयं प्रेतेन आविष्टा।
गणिका - शास्त्रं जानासि?
वैद्यः - अथ किम्?
गणिका - ब्रूहि वैद्यशास्त्रम्।
वैद्यः - शृणोतु भवती।
वातिकाः पैत्तिकाश्चैव श्लैष्मिकाश्च महाविषाः।
त्रीणि सर्पा भवन्त्येते चतुर्थो नाध्गिम्यते।।
अन्वय: एते वातिकाः पैत्तिकाः च एव श्लैष्मिकाः च (रोगाः)। त्रीणि महाविषाः सर्पाः भवन्ति चतुर्थो न अध्गिम्यते।।
सरलार्थ: (उसके बाद वैद्य प्रवेश करता है।)
वैद्य - मेरे द्वारा गोलियाँ लाई गई हैं। जल लाओ, जल।
चेटी - यह जल है।
वैद्य - गोलियाँ घोंटता हूँ।
गणिका - (संन्यासी के स्वर में) मूर्ख वैद्य! जानते हो किस साँप के द्वारा यह स्त्री डसी गई है?
वैद्य - अरे! प्रेत ने इसके अन्दर प्रवेश कर लिया है।
गणिका - शास्त्र को जानते हो।
वैद्य - और क्या?
गणिका - शास्त्र को बोलो (शास्त्र को सुनाओ)।
वैद्य - सुनो आप।
वात (वायु) दोष से सम्बन्ध्ति, पित्त दोष से सम्बन्ध्ति और कंफ दोष से सम्बन्ध्ति ये रोग ही महाविषैले साँप होते हैं। (इनके अतिरिक्त) चैथा कोई अन्य पाया नहीं जाता है।
गणिका - अयमपशब्दः। त्रायः सर्पा इति वक्तव्यम्। 'त्रीणि ' नपुंसकंं भवति।
वैद्यः - अरे, अरे! इयं वैयाकरणसर्पेण खादिता भवेत्।
गणिका - कियन्तो विषवेगाः?
वैद्यः - विषवेगाः शतम्।
गणिका - न न, सप्त ते विषवेगाः। तद्यथा।
रोमाञ्चो मुखशोषश्च वैवर्ण्यं चैव वेपथुः।
हिक्का श्वासश्च संमोहः सप्तैता विषविक्रियाः।।
वैद्यः - न खल्वस्माकं विषयः। नमो भगवत्यै। गच्छामि तावदहम्।
(निष्क्रान्तः)
अन्वय: रोमाञ्च: मुखशोचः वैवर्ण्यं च वेपथुः च एव हिक्का श्वासः संमोहः च एताः सप्त विषविक्रियाः भवन्ति।
सरलार्थ:
गणिका - यह अशुद्ध (गाली) शब्द है। त्रायः सर्पाः यह कहना चाहिए। 'त्रीणि '-नपुंसकं लिंग में होता है।
वैद्य - अरे, अरे! यह तो व्याकरणज्ञानी साँप के द्वारा डस ली गई है।
गणिका - कितनी शहर की गतियाँ होती हैं?
वैद्य - शहर की गतियाँ सैकड़ों हैं।
गणिका - नहीं, नहीं, शहर की वे सात ही गतियाँ हैं। तो जैसे।
रोंगटे खड़े होना, मुँह सूख जाना, चेहरे का रंग उड़ जाना और कँपकँपी लगना।
हिचकी आना, साँस उखड़ना और बेहोशी आना; शहर की ये सात गतियाँ होती हैं।।
(निकल गया)
(प्रविश्य)
यमपुरुषः - भगवन्मुच्यतां गणिकायाः शरीरम्।
गणिका - अस्तु।
यमपुरुषः - यथा अस्याः जीवविनिमयं कृत्वा यावदहमपि स्वकार्यमनुतिष्ठामि।
(तथा कृत्वा निष्क्रान्तः)
परिव्राजकः - शिवमस्तु सर्वजगतां परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्रा सुखी भवतु लोकः।।
अन्वय: सर्वजगताम् शिवम् अस्तु, भूतगणाः परहितनिरताः भवन्तु। दोषाः नाशम् प्रयान्तु; लोकः सर्वत्र सुखी भवतु।
सरलार्थ: (प्रवेश करके)
यमपुरुष - हे भगवन्! वेश्या का शरीर छोड़ दीजिए।
गणिका - ठीक है।
यमपुरुष - जैसे (जिस प्रकार) इसके जीव (प्राण) की अदला-बदली करके जब तक (तो) मैं भी अपना कार्य करता हूँ।
(वैसा करके निकल गया)
संन्यासी - सारे संसार का कल्याण हो, (संसार के) प्राणिमात्र परोपकार के कार्य में लग जाएँ।
सारे दुर्गुण (सारी बुराइयाँ) नष्ट हो जाएँ, लोग सब जगह सुखी हों।
भगवदज्जुकम
पाठ का परिचय
भगवदज्जुकम् संस्कृत का एक प्रसिद्ध प्रहसन है। इसकी रचना बोधयन द्वारा की गई है। इसमें एक गणिका जिसका नाम वसन्तसेना है अपनी परभृतिका नामक सेविका के साथ उद्यान में विहार के लिए आती है। गणिका का प्रेमी रामिलक उसे मिलने वहाँ आता है। इसी बीच यम का भेजा दूत किसी अन्य स्त्री (जिसका नाम भी वसन्तसेना है) के प्राण लेने आता है और सर्प बनकर गलती से उद्यान में आई इस वसन्तसेना नामक गणिका को डस लेता है और उसका जीव लेकर यमलोक चला जाता है।इसी उद्यान में एक संन्यासी (परिव्राजक) भी अपने शिष्य शाण्डिल्य के साथ आए हुए हैं। शाण्डिल्य वसन्तसेना को मृत देखकर बहुत दुःखी होता है। तब संन्यासी योग के बल से अपना जीव गणिका के शरीर में प्रवेश करा देते हैं। गणिका जीवित हो जाती है। उध्र यमराज अपने दूत को गलत जीव लाने पर डाँट-डपट कर वापस भेज देते हैं। यम का दूत उद्यान में आकर देखता है कि जिस वसन्तसेना के प्राण वह ले गया था, वह संन्यासी की तरह सबको उपदेश दे रही है। यम का दूत संन्यासी के खेल को आगे बढ़ाने के लिए गणिका का जीव संन्यासी की काया में डाल देता है। इससे संन्यासी गणिका की तरह बोलते हैं और गणिका संन्यासी की तरह। जीव के इस उलट पेफर से नाटक में हास्यपूर्ण और रोचक स्थिति बन जाती है।
(ततः प्रविशन्ति एकतः परिव्राजकस्य जीवेन आविष्टा वसन्तसेना, चेटी, रामिलकश्च: परिव्राजकस्य निर्जीवदेहेन सह शिष्यः शाण्डिल्यः अपरतः अन्यया चेट्या सह वैद्यः)
वैद्यः - कुत्र सा?
चेटी - एषा खलु अज्जुका न तावत् सत्त्वस्थिता।
वैद्यः - अरे इयं सर्पेण दष्टा।
चेटी - कथमार्यो जानाति?
वैद्यः - महान्तं विकारं करोतीति। विषतन्त्रम् आरभे। कुण्डल-कुटिलगामिनि! मण्डलं प्रविश प्रविश। वासुकिपुत्र! तिष्ठ तिष्ठ। श्रू श्रू। अहं ते सिरावेध्ं करिष्यामि। कुत्र कुठारिका।
गणिका - मूर्ख वैद्य! अलं परिश्रमेण।
वैद्यः - पित्तमप्यस्ति। अहं ते पित्तं वातं कफं च नाशयामि।
रामिलकः - भोः! क्रियतां यत्नः। न खल्वकृतज्ञा वयम्।
वैद्यः - गुलिकाः आनयामि।
सरलार्थ: उसके बाद एक ओर से संन्यासी के जीवात्मा से युक्त वसन्तसेना, चेटी और रामिलक: तथा संन्यासी के मृत शरीर के साथ शिष्य शाण्डिल्य प्रवेश करते हैं, दूसरी ओर से दूसरी (अन्य) चेटी के साथ वैद्य ;प्रवेश करते हैं,-
वैद्य - वह कहाँ है?
चेटी - निश्चय ही यह सम्मानिता देवी जीवित नहीं है।
वैद्य - अरे! यह तो साँप से डसी गई है।
चेटी - आपने कैसे जाना?
वैद्य - बहुत हानि कर रहा है। झाड़-पूँफक को आरम्भ कर रहा हूँ। अरे कुण्डल की तरह टेढ़ी चाल वाले सर्प! (तू) ओझाओं के द्वारा साँप पकड़ने के लिए पृथ्वी पर बनाई जाने वाली वृत्ताकार आकृति में प्रवेश कर, प्रवेश कर। शूह-शूह। मैं तेरे नाड़ी (नस) को काट दूँगा। कुल्हाड़ी कहाँ है?
गणिका - हे मूर्ख वैद्य! व्यर्थ परिश्रम मत करो।
वैद्य - पित्त भी है। मैं तेरे पित्त, वायु (वात) और कफ को नष्ट करता हूँ।
रामिलक - अरे! प्रयत्न जारी रखें। निश्चय ही हम कृतघ्न (उपकार न मानने वाले) नहीं हैं।
वैद्य - गोलियाँ लाता हूँ।
शब्दार्थ: | भावार्थ: |
एकतः | एक ओर |
परिव्राजकस्य | संन्यासी का |
जीवेन | प्राण के साथ |
आविष्टा | प्रविष्ट हुई |
अपरतः | दूसरी ओर |
चेट्या | दासी, नौकरानी |
एषा | यह |
अज्जुका | सामान्य महिला/गणिका के लिए संज्ञा और संबोध्न |
सत्त्वस्थिता | जीवित |
दष्टा | डस ली गई है |
आर्यः | श्रीमान् (आप) |
महान्तम् | बहुत बड़े |
विषतन्त्रम् | झाड़ पूँफक को/विष भगाने की विद्या को |
आरभे | प्रारम्भ करता हूँ |
कुण्डलकुटिलगामिनि | हे कुण्डल के समान कुटिल चाल वाली |
मण्डलम् | ओझाओं के द्वारा साँप पकड़ने के लिए पृथ्वी तल पर बनाई जाने वाली वृत्ताकार आकृति |
प्रविश | प्रवेश कर |
वासुकिपुत्र | वासुकि नाग का पुत्र (साँप) |
सिरावेध्म् | नाड़ी काटना |
कुठारिका | छोटी कुल्हाड़ी |
अलम् | मत करो |
ते | तेरे |
पित्तम् , वातम् | पित्त एवं वात (वायु) से उत्पन्न होने वाले रोग |
नाशयामि | नष्ट करता हूँ |
क्रियताम् | करें |
यत्नः | श्रम, परिश्रम, मेहनत |
अकृतज्ञाः | कृतघ्न |
गुलिकाः | दवाई की गोलियाँ |
(निष्क्रान्तः)
(ततः प्रविशति यमपुरुषः)
यमपुरुषः - भोः! भत्र्सितोऽहं यमेन।
न सा वसन्तसेनेयं क्षिप्रं तत्रैव नीयताम्।
अन्या वसन्तसेना या क्षीणायुस्तामिहाऽनय।।
यावदस्याश्शरीरमग्निसंयोगं न स्वीकरोति तावत्सप्राणामेनां करोमि।
(विलोक्य) अये! उत्थिता खल्वियम्। भो! किन्नु खल्विदम्।
अस्या जीवो मम करे उत्थितैषा वरांङ्गना।
आश्चर्यं परमं लोके भुवि पूर्वं न दृश्यते।।
(सर्वतोऽवलोक्य)
अन्वयः
(i) इयं सा वसन्तसेना न (अस्ति) तत्रौव क्षिप्रं नीयताम्। या अन्या क्षीणायुः वसन्तसेना ताम् इह आनय।।
(ii) मम करे अस्याः जीवः एषा वरांङ्गना उत्थिता। (इदं) परमं आश्चर्यं लोके भुवि पूर्वं न दृश्यते।।
सरलार्थ: (निकल गया)
(उसके बाद यमराज का सेवक (सैनिक) प्रवेश करता है)
यमपुरुष - अरे! मैं यमराज के द्वारा डाँटा गया हूँ।
यह वह वसन्तसेना नहीं है (जो क्षीण आयु वाली थी) (अतः) इसे शीघ्र ही वहीं ले जाओ और जो नष्ट आयु वाली दूसरी वसन्तसेना नामक महिला है; उसे यहाँ ले आओ। (तो) जब तक इसका (यह) शरीर अग्नि में संयोग नहीं पाता तब तक इसे सप्राण (जीवित) करता हूँ। (देखकर) अरे! निश्चय ही यह तो उठ गई। अरे! निश्चय ही यह क्या हुआ। इसका जीव मेरे हाथ में होते हुए भी यह सुन्दर शरीर वाली सुन्दरी (स्त्री) उठ गई। इस महान आश्चर्य को पहले संसार में ध्रती पर कहीं भी नहीं देखा गया।
(सब ओर देखकर)
शब्दार्थ: | भावार्थ: |
निष्क्रान्तः | निकल गया |
प्रविशति | प्रवेश करता है |
यमपुरुषः | यमराज का सेवक |
भर्त्सितः | डाँटा गया |
क्षिप्रम् | शीघ्र |
नीयताम् | ले जाएँ |
क्षीणायुः | जिसकी आयु समाप्त हो गई है |
इह | यहाँ |
आनय | लाओ |
अग्निसंयोगम् | आग से संयोग |
स्वीकरोति | पाता है |
सप्राणाम् | प्राण सहित को |
उत्थिता | उठ गई |
करे | हाथ में |
वरांङ्गना | श्रेष्ठ नारी/गणिका |
लोके | संसार में |
भुवि | पृथ्वी पर |
पूर्वम् | पहले |
अवलोक्य | देखकर |
अये! अयमत्रभवान् योगी परिव्राजकः क्रीडति। किमिदानीं करिष्ये। भवतु, दृष्टम्। अस्या गणिकाया आत्मानं परिव्राजकशरीरे न्यस्य अवसिते कर्मणि यथास्थानं विनियोजयामि।
(तथा कृत्वा निष्क्रान्तः)
परिव्राजकः - (उत्थाय गणिकायाः स्वरेण) परभृतिके! परभृतिके!
शाण्डिल्यः - अरे! प्रत्यागतप्राणः खलु भगवान्।
परिव्राजकः - कुत्र कुत्र रामिलकः।
रामिलकः - भगवन्नयमस्मि।
शाण्डिल्यः - भगवन् किमिदम्? रुद्राक्षग्रहणोचितः वामहस्तः शघ्खवलयपूरित इव मे प्रतिभाति। नैव नैव।
परिव्राजकः - रामिलक! आलिङ्ग माम्।
सरलार्थ: अरे! ये योगी संन्यासी खेल रहे हैं। (यह इस संन्यासी का खेल है) अब क्या करूँ (मैं)। ठीक है, समझ लिया। इस गणिका ;वेश्याद्ध की आत्मा को संन्यासी के शरीर में रखकर (डालकर) काम की समाप्ति होने तक उचित स्थान पर लगाता हूँ।
(वैसा करके निकल गया)
संन्यासी - (उठकर वेश्या की आवाश में) हे सेविका! हे सेविका!
शाण्डिल्य - अरे! निश्चय ही भगवन् जीवित हो गए हैं।
संन्यासी - रामिलक कहाँ है, कहाँ है?
रामिलक - हे भगवन्! (मैं) यह हूँ।
शाण्डिल्य - भगवन् यह क्या? (आपका) बायाँ हाथ जो रुद्राक्ष धरण करने योग्य है शंख से बने हुए कड़े से युक्त जैसा मुझे प्रतीत हो रहा है। नहीं-नहीं।
संन्यासी - हे रामिलक! मुझको गले लगा लो।
शब्दार्थ: | भावार्थ: |
अत्रभवान् | आप |
परिव्राजकः | संन्यासी (साधु) |
दृष्टम् | देख लिया (समझ लिया) |
न्यस्य | रखकर |
अवसिते | समाप्त होने पर |
कर्मणि | काम में |
विनियोजयामि | लगाता हूँ |
उत्थाय | उठकर |
परभृतिके | दूसरों की सेवा करने वाली |
प्रत्यागतप्राणः | जिसका प्राण लौट आया है |
ग्रहणोचितः | उचित रूप से धरण किए हुए |
शघ्खवलयपूरित | शघ्खनिर्मित कड़ा से युक्त |
प्रतिभाति | प्रतीत होता है |
आलिङ्ग | गले लगाओ |
(ततः प्रविशति वैद्यः)
वैद्यः - गुलिकाः मया आनीताः। उदकम् उदकम्।
चेटी - इदम् उदकम्।
वैद्यः - गुलिकाः अवघट्टðयामि।
गणिका - (संन्यासिनः स्वरेण) मूर्ख वैद्य! जानासि कतमेन सर्पेण इयं स्त्री दष्टा?
वैद्यः - अरे, इयं प्रेतेन आविष्टा।
गणिका - शास्त्रं जानासि?
वैद्यः - अथ किम्?
गणिका - ब्रूहि वैद्यशास्त्रम्।
वैद्यः - शृणोतु भवती।
वातिकाः पैत्तिकाश्चैव श्लैष्मिकाश्च महाविषाः।
त्रीणि सर्पा भवन्त्येते चतुर्थो नाध्गिम्यते।।
अन्वय: एते वातिकाः पैत्तिकाः च एव श्लैष्मिकाः च (रोगाः)। त्रीणि महाविषाः सर्पाः भवन्ति चतुर्थो न अध्गिम्यते।।
सरलार्थ: (उसके बाद वैद्य प्रवेश करता है।)
वैद्य - मेरे द्वारा गोलियाँ लाई गई हैं। जल लाओ, जल।
चेटी - यह जल है।
वैद्य - गोलियाँ घोंटता हूँ।
गणिका - (संन्यासी के स्वर में) मूर्ख वैद्य! जानते हो किस साँप के द्वारा यह स्त्री डसी गई है?
वैद्य - अरे! प्रेत ने इसके अन्दर प्रवेश कर लिया है।
गणिका - शास्त्र को जानते हो।
वैद्य - और क्या?
गणिका - शास्त्र को बोलो (शास्त्र को सुनाओ)।
वैद्य - सुनो आप।
वात (वायु) दोष से सम्बन्ध्ति, पित्त दोष से सम्बन्ध्ति और कंफ दोष से सम्बन्ध्ति ये रोग ही महाविषैले साँप होते हैं। (इनके अतिरिक्त) चैथा कोई अन्य पाया नहीं जाता है।
शब्दार्थ: | भावार्थ: |
गुलिकाः | गोलियाँ |
आनीताः | लाई गई हैं |
अवघट्टयामि | घोंटता हूँ/पीसता हूँ |
जानासि | जानते हो |
कतमेन | किस |
प्रेतेन | प्रेत के द्वारा |
ब्रूहि | बोलो |
भवती | आप |
वातिकाः | वात (वायु) से सम्बन्धित |
श्लैष्मिकाः | कफ से सम्बन्ध्ति |
सर्पाः | सर्प (साँप) |
अध्गिम्यते | प्राप्त होता है |
गणिका - अयमपशब्दः। त्रायः सर्पा इति वक्तव्यम्। 'त्रीणि ' नपुंसकंं भवति।
वैद्यः - अरे, अरे! इयं वैयाकरणसर्पेण खादिता भवेत्।
गणिका - कियन्तो विषवेगाः?
वैद्यः - विषवेगाः शतम्।
गणिका - न न, सप्त ते विषवेगाः। तद्यथा।
रोमाञ्चो मुखशोषश्च वैवर्ण्यं चैव वेपथुः।
हिक्का श्वासश्च संमोहः सप्तैता विषविक्रियाः।।
वैद्यः - न खल्वस्माकं विषयः। नमो भगवत्यै। गच्छामि तावदहम्।
(निष्क्रान्तः)
अन्वय: रोमाञ्च: मुखशोचः वैवर्ण्यं च वेपथुः च एव हिक्का श्वासः संमोहः च एताः सप्त विषविक्रियाः भवन्ति।
सरलार्थ:
गणिका - यह अशुद्ध (गाली) शब्द है। त्रायः सर्पाः यह कहना चाहिए। 'त्रीणि '-नपुंसकं लिंग में होता है।
वैद्य - अरे, अरे! यह तो व्याकरणज्ञानी साँप के द्वारा डस ली गई है।
गणिका - कितनी शहर की गतियाँ होती हैं?
वैद्य - शहर की गतियाँ सैकड़ों हैं।
गणिका - नहीं, नहीं, शहर की वे सात ही गतियाँ हैं। तो जैसे।
रोंगटे खड़े होना, मुँह सूख जाना, चेहरे का रंग उड़ जाना और कँपकँपी लगना।
हिचकी आना, साँस उखड़ना और बेहोशी आना; शहर की ये सात गतियाँ होती हैं।।
(निकल गया)
शब्दार्थ: | भावार्थ: |
अपशब्दः | अशुद्ध शब्द, गाली |
वक्तव्यम् | बोलना चाहिए |
वैयाकरणसर्पेण | व्याकरणज्ञानी रूपी साँप से |
खादिता | डसी गई है |
कियन्तः | कितने |
विषवेगाः | जहर की गतियाँ |
तद्यथा (तत् + यथा) | तो जैसे |
मुखशोषः | सूखा हुआ मुख |
वैवर्ण्यंम् | चेहरे का रंग उड़ना |
वेपथुः | काँपना/कँपकँपी |
हिक्का | हिचकी |
संमोहः | बेहोशी, मूच्र्छा |
विषविक्रियाः | जहर की विकृतियाँ |
(प्रविश्य)
यमपुरुषः - भगवन्मुच्यतां गणिकायाः शरीरम्।
गणिका - अस्तु।
यमपुरुषः - यथा अस्याः जीवविनिमयं कृत्वा यावदहमपि स्वकार्यमनुतिष्ठामि।
(तथा कृत्वा निष्क्रान्तः)
परिव्राजकः - शिवमस्तु सर्वजगतां परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्रा सुखी भवतु लोकः।।
अन्वय: सर्वजगताम् शिवम् अस्तु, भूतगणाः परहितनिरताः भवन्तु। दोषाः नाशम् प्रयान्तु; लोकः सर्वत्र सुखी भवतु।
सरलार्थ: (प्रवेश करके)
यमपुरुष - हे भगवन्! वेश्या का शरीर छोड़ दीजिए।
गणिका - ठीक है।
यमपुरुष - जैसे (जिस प्रकार) इसके जीव (प्राण) की अदला-बदली करके जब तक (तो) मैं भी अपना कार्य करता हूँ।
(वैसा करके निकल गया)
संन्यासी - सारे संसार का कल्याण हो, (संसार के) प्राणिमात्र परोपकार के कार्य में लग जाएँ।
सारे दुर्गुण (सारी बुराइयाँ) नष्ट हो जाएँ, लोग सब जगह सुखी हों।
शब्दार्थ: | भावार्थ: |
मुच्यताम् | छोड़ दें |
गणिकायाः | वेश्या का |
जीवविनिमयम् | प्राण की अदला-बदली |
अनुतिष्ठामि | करता हूँ |
शिवमस्तु | कल्याण हो |
सर्वजगताम् | सारे संसार का |
परहितनिरताः | परोपकार में लगे |
भूतगणाः | सभी लोग |
प्रयान्तु | जाएँ |
सर्वत्रा | सब जगह |
लोकः | संसार |
Chapters | Link |
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Chapter 1 | सूभाषितानि |
Chapter 2 | बिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता |
Chapter 3 | भगवदज्जुकम |
Chapter 4 | सदैव पुरतो निधेहि चरणम |
Chapter 5 | धर्मे धमनं पापे पुण्यम |
Chapter 6 | प्रेमलस्य प्रेमल्याश्च कथा |
Chapter 7 | जलवाहिनी |
Chapter 8 | संसारसागरस्य नायकाः |
Chapter 9 | सप्तभगिन्यः |
Chapter 10 | अशोक वनिका |
Chapter 11 | सावित्री बाई फुले |
Chapter 12 | कः रक्षति कः रक्षितः |
Chapter 13 | हिमालयः |
Chapter 14 | आर्यभटः |
Chapter 15 | प्रहेलिका |
GOOD EXPLANATION
ReplyDeletekeep it up
👍👍👍👍
Good explanation
ReplyDeleteBhai itna successful blog kaise banaya
ReplyDelete"Hatho se" just kidding .As "Vivek Bindra" has said "try to solve burning problem of your customers"
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